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मंगलवार, 31 अगस्त 2010
सोमवार, 30 अगस्त 2010
ग़लती हो गई!
हंसना ज़रूरी है, क्यूंकि …
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ग़लती हो गई!
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रविवार, 29 अगस्त 2010
डॉक्टर की फीस
:: एक मुस्कान ही शांति की शुरुआत है! :: |
डॉक्टर की फीस
फाटक बाबू ने खदेरन की सलाह पर अमल करना ही उचित समझा और पहुँच गए डॉक्टर उठावन सिंह की क्लीनिक। फाटक बाबू ने बताया, “कुछ नहीं बस मामूली सा दर्द है।”
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शनिवार, 28 अगस्त 2010
आने जाने में …
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
आज सिर्फ़ एक चित्र…
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
बुझावन के प्रश्न, बतावन का जवाब!-4
हंसना ज़रूरी है क्यूंकि …हंसने से मस्तिस्क को ऑक्सीजन मिलता है। |
बुझावन के प्रश्न, बतावन का जवाब!-4 |
बुधवार, 25 अगस्त 2010
परीक्षा के परिणाम
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
प्यार से बोला …
सोमवार, 23 अगस्त 2010
चुप, वरना …
रविवार, 22 अगस्त 2010
खांसी चली जाएगी
खांसी चली जाएगी |
| एक बार फिर शाम के वक़्त खदेरन पहुंच गया दोस्तों की महफ़िल में। अब आपको तो पता है ही कि जब खदेरन दोस्तों के साथ होता है, तो क्या होता है?
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शनिवार, 21 अगस्त 2010
क्या ऐश है …!
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
आज सिर्फ़ एक चित्र…
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
बुझावन के प्रश्न, बतावन का जवाब!-3
हंसना ज़रूरी है क्यूंकि …हंसने से सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है। |
बुझावन के प्रश्न, बतावन का जवाब!-3 |
बुधवार, 18 अगस्त 2010
घुटने टेक कर…
हंसना ज़रूरी है, क्यूंकि …हंसने से हम मन की शक्ति का अधिक से अधिक प्रयोग कर पाते हैं। |
घुटने टेक कर… |
आपको तो पता है ही कि फाटक बाबू खदेरन के पड़ोसी हैं। तो खदेरन के घर जो भी खटर-पटर होती है, फटक बाबू को पता चल ही जाता है।
उस दिन सुबह से ही किसी बात पर फुलमतिया जी बिगड़ी हुई थीं। खदेरन भी कुछ न कुछ बोले ही जा रहा था। खदेरन और फुलमतिया जी की इस खटर-पटर से फाटक बाबू को तो आए दिन वास्ता पड़ता ही रहता था। कोई नई बात नहीं थी।
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फाटक बाबू खाने के टेबुल पर बैठे थे। उनका नौकर बुहारन खाना परोस गया। खाने का रूप-रंग देखकर फाटक बाबू की त्योरियां चढ गई। उन्होंने बुहारन से पूछा, “आज तुमने रोटी में कुछ ज़्यादा ही घी नहीं लगा दिया है?”
बुहारन ने डायनिंग टेबुल का मुयायना किया और स्थिति को स्पषट करते हुए कहा, “ग़लती हो गई! मालिक! लगता है मैंने आपको अपनी रोटी दे दी!!”
आने जाने में …
… और फाटक बाबू चल दिए गांव के लिए। खंजन देवी उनके लौटने की प्रतीक्षा करती रहीं। फाटक बाबू लौटे छह दिनों के बाद।

फलवाले ने खदेरन को समझाया, “चुप, वरना मक्खियां सुन लेंगी।”
अब मित्र मंडली ऐसे कहां मानने वाली होती है। फेंकू ने ज़ोर दिया, “अरे! कुछ नहीं होता यार। लगा ले। सब ठीक हो जाएगा। सर्दी-खांसी चली जाएगी।”
बगल में बैठा, चार पेग लगा चुका, हुलासी प्रसाद, जो अब तक चुप था, बोला, “क्यों नहीं जाएगी? ज्ब दारू पीने से मेरा घर, ज़ायदाद, पैसा, जमा पूंजी, सब कुछ चला गया, … तो तेरी सर्दी-खांसी क्या चीज़ है! पी ले!!”
खदेरन का स्वर करुण रस में डूब गया, बोला, “कहना क्या था, इस बार और कोई उपाय नहीं देख … फुलमतिया जी को घुटने टेक कर ही आना पड़ा मेरे पास, आईं और झुक कर मेरी आंखों में आंखें डल कर बोलीं, पलंग के नीचे से निकल आओ, मैं कुछ नहीं बोलूंगी…।”