फाटक बाबू और खदेरन एक दिन के अवकाश पर थे।
फुलमतिया जी और खंजन देवी दोनों बाहर गई थीं।
खदेरन ने फाटक बाबू के सामने प्रस्ताव रखा कि कहीं चलकर घूमा जाए। प्रस्ताव पसंद आया। तय यह हुआ कि एक रात किसी सूनी जगह पर चलकर बिताया जाए।
दोनों यात्रा पर निकल लिए। साथ में टेंट भी ले गए थे। सुनसान रास्ता था। काफ़ी देर और दूर चलने के बाद रात हो गई। एक जगह टेंट लगाया और सो गए।
कुछ देर के बाद जब फाटक बाबू की आंख खुली तो उन्होंने खदेरन से पूछा, “ तुम्हें कुछ दिख रहा है खदेरन!”
“हां फाटक बाबू!” खदेरन ने आकाश की ओर देखते हुए कहा, “बहुत साफ़! सुंदर! स्पष्ट! नीला आसमान! ध्रुव तारा। रोहिणी नक्षत्र! अहा, कितना सुहावना दृश्य!”
फाटक बाबू ने झुंझलाए स्वर में कहा, “बस-बस रहने दो! अब ज़्यादा मत बको! तुम्हे वह नहीं दिख रहा जो दिखना चाहिए।”
खदेरन परेशान हुआ, “क्यों? क्या हुआ? आपको क्या दिख रहा है? आप क्या देख रहे हैं?”
फाटक बाबू ने बताया, “कोई हमारा टेंट ले गया है। इसीलिए तुम्हें यह सब दिख रहा है … और तुम्हें वह नहीं दिख रहा जो दिखना चाहिए …!”
वाह ..
जवाब देंहटाएंha ha ha... :-)
जवाब देंहटाएंहा हा हा ... सुन्दर नज़ारे पर पानी फेर दिया
जवाब देंहटाएंha ha ha ....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर व्यंग| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंमज़ेदार!
जवाब देंहटाएंहा-हा-हा ...
हा हा!! बताओ भला...
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